गुरु जांभोजी, विश्व चिंतन और वैज्ञानिक संदर्भ

आज संपूर्ण विश्व अशांत है । प्रत्येक व्यक्ति अशांत है । जगत् के अनेक प्रबुद्ध विचारक , वैज्ञानिक एवं राजनीतिज्ञ शांति स्थापना के लिए सतत् प्रयत्नशील है, किंतु शांति की संभावना उत्तरोत्तर दूर होती प्रतीत होती है । 
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आधुनिक युग में शांति के अग्रदूत थे । उनका संपूर्ण जीवन शांति के लिए प्रयत्न करने में बीता और उसी के लिए उनका बलिदान भी हुआ । वे भगवद् गीता के परम भक्त थे । धर्म की दृष्टि से किसी धर्म - संप्रदाय विशेष का नाम लिया जाए तो गांधी जी परम वैष्णव हिंदू थे , किंतु सभी धर्मों के प्रति उनका समभाव था । उन्होंने किसी भी धर्म - संप्रदाय आदि की कभी आलोचना नहीं की । सभी धर्मों को वे आदर की दृष्टि से देखते थे और स्थाई शांति के लिए वे सर्वधर्म समभाव को आवश्यक समझते थे । उनके जीवन काल में दो - दो विश्व युद्ध हुए और दोनों विश्व युद्धों में भी उनकी भूमिका एक शांति दूत के रूप में रही । 

गुरु जांभोजी (Guru Jambhoji) का जन्म ईसा की 15 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था । यह युग संपूर्ण विश्व के लिए विचार क्रांति का युग माना जा सकता है । यह एक प्रकार से संक्रमण का काल था । इस युग में विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं का आगमन हुआ । भारत भूमि पर इससे पूर्व महात्मा बुद्ध , भगवान महावीर तथा कुछ अन्य महापुरुषों ने समाज में ईश्वरवाद एवं धर्म के विरुद्ध आवाज उठाई थी । चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशियस ने विचार क्षेत्र में क्रांति पैदा की थी । ग्रीस में सुकरात , पाइथागोरस और प्लेटो ने क्रांति की आवाज बुलंद कर रखी थी । इरान - परसिया में जर / रुस्ट चिंतन को नई दिशा दे चुके थे । अन्य राष्ट्रों में भी अपने - अपने स्तर पर विभिन्न महापुरुषों के द्वारा चिंतन को एक नई दिशा प्रदान करने का प्रयास किया गया । प्राय : इन सभी महापुरुषों के चिंतन का अध्ययन विश्व दर्शन की आधार भूमि के रूप में किया जाता है । ये विश्व के महान चिंतक एवं दार्शनिक माने जाते हैं ।

गुरु जांभोजी का अध्ययन अभी तक इस प्रकार के व्यापक संदर्भ में नहीं हुआ है । हां , मेरी समझ से इस दृष्टि से अध्ययन के आयाम अवश्य विकसित हुए हैं , लेकिन अध्ययन नहीं । गुरु जांभोजी और उनके चिंतन का अध्ययन अब तक धार्मिक परिवेश और पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अवश्य हुआ है । गुरु जांभोजी एवं उनके चिंतन को विस्तृत रूप से समझने के लिए उनके अध्ययन के विविध आयाम अभी तक बाकी है । जिन पर साहित्य अध्येताओं एवं शोधार्थियों की दृष्टि जाना अति आवश्यक है । उनके चिंतन का एक आयाम गुरु जांभोजी का अध्ययन विश्व चिंतन और वैज्ञानिक संदर्भ में किया जाना आवश्यक है ।

गुरु जांभोजी विश्व के एक महान दार्शनिक , पंथ - संस्थापक , धर्म - नियामक एवं समाज सुधारक थे । उनका चिंतन सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक जीवन से गहरा संबंध रखता है । यदि सामाजिक जीवन को गुरु जांभोजी का चिंतन समग्र रूप से प्रभावित नहीं करता तो इतने लंबे समय तक उनकी परंपरा का चलना संभव नहीं था और उनका शिष्य समाज इतना वृहत एवं विस्तृत नहीं होता । उनका चिंतन अत्यंत संतुलित , संयमित , आदर्शपूर्ण और समन्वयवादी था । प्रत्येक धर्म , वर्ण एवं वर्ग को उन्होंने प्रभावित किया तथा लोगों ने उनका अनुसरण भी किया । गुरु जांभोजी के संपर्क में युगीन कई राजा , पंडित , काजी तथा धार्मिक क्षेत्र के दिग्गज भी आए थे । गुरु जांभोजी के चिंतन से वे प्रभावित भी हुए । उनके साथ शास्त्रार्थ भी हुआ और धार्मिक भावनाएं भी विकसित हुई । धार्मिक चेतना के साथ - साथ उन्होंने जीव दया , अहिंसा , सत्य , पर्यावरण संरक्षण आदि पर भी अत्यधिक बल दिया । यदि गुरुजी ने मात्र धर्म को ही नया रूप प्रदान किया होता तो गुरु जांभोजी को जितनी बड़ी सफलता अपने जीवन में अपने मिशन ( लोक कल्याण ) या एक नई | पंथ की स्थापना को व्यापक रूप देने में मिली , वह शायद नहीं मिल पाती ।

उनके समकालीन या उनके पश्चय - पूर्व कई विचारक एवं युग महापुरुष भी भारत भूमि पर अवतरित हुए , किंतु गुरु जांभोजी और गुरु नानक देव के चिंतन को जो व्यापकता मिली , उतनी व्यापकता अन्य महापुरुषों को नहीं । गुरु जांभोजी के समग्र चिंतन का प्रतिफल बिश्नोई पंथ की स्थापना है , वहीं गुरु नानक देव का चिंतन सिख धर्म के रूप में पल्लवित - पुष्पित हुआ । इन दोनों महापुरुषों की चिंतन परंपरा 500 से अधिक वर्षों से जीवंत रूप में चली आ रही है । जो इन महापुरुषों के संयमित , संतुलित , समन्वयवादी , सामाजिक , राजनीतिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रतिफल है । गुरु जांभोजी ने उत्तर भारत में संतमत का जो वैचारिक बीड़ा उठाया उनकी देन ही विश्नोई पंथ है । गुरु जांभोजी को अपने युग में जितनी सफलता मिली , उससे भी अधिक व्यापक प्रसार बाद के युग में मिला । कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु जांभोजी ने जिस वैचारिक चिंतन का समाज में प्रचार - प्रसार किया , एक नए पंथ की स्थापना की थी , जो सामाजिक रूप से पांच शताब्दियों पश्चात भी एक नवीन दृष्टिकोण के साथ वर्तमान है । एक सुदृढ़ सामाजिक संगठन के रूप में राष्ट्र में अपनी विशेष भूमिका अदा कर रहा है । इसका कारण गुरु जांभोजी का विस्तृत एवं दूरगामी चिंतन है । उनके चिंतन ने सामाजिक जीवन को समग्र रूप से प्रभावित किया । 

उपर्युक्त बातों को मद्देनजर रखते हुए गुरु जांभोजी के चिंतन का अध्ययन करने के लिए कुछ आधार सूत्र जिस पर विचार किया जा सकता है वर्गविहीन समाज संरचनाः गुरु जांभोजी के समय में समाज अस्पृश्यता ,ऊंच - नीच , बाह्य आडंबर , धार्मिक रूढ़ियों , अनेक जातियों , नीतियों एवं कुरीतियों से ग्रस्त था । समाज में निराशा , मूल्यहीनता एवं मानसिक दुर्बलता व्याप्त थी । वर्ग भेद काफी तीव्र था । ऐसे समय में गुरु जांभोजी ने अपनी वाणी के माध्यम से समाज में प्रचलित विभिन्न विषमताओं को दूर करने का एक सद् प्रयास किया । युगीन समाज की स्थिति , मूल्यों एवं दिशा को उन्होंने समझा । गुरु जांभोजी ने समाज एवं धर्म के नाम पर पाखंड का प्रचार करने वाले लोगों से लोहा भी लिया । किसी भी समाज को विशिष्ट स्थान पर स्थापित करने के लिए समाज में मूल्यों का सर्वाधिक महत्व होता है । गुरु जांभोजी ने भी समाज में आदर्श जीवन मूल्य प्रदान करने के साथ - साथ उत्तम ढंग से जीवन यापन करने की विधि बताते हुए , सर्वागीण विकास की राह प्रशस्त की थी । उनके दर्शन के अनुसार ऊंच - नीच , भेदभाव , वर्ग , जाति आदि कुछ नहीं है । सबसे बड़ा मानव धर्म है । जो मानवता की राह पर चलते हुए जीवन यापन करता है , वही श्रेष्ठ व्यक्ति हैं ।
' उत्तम कुलि का उत्तम न होयबा , किरिया सारू ' ।
इस प्रकार उनकी वर्ग विहीन , समग्र समाजवादी समाज की संरचना युग में क्रांतिकारी साबित हुई । साथ ही भविष्य के लिए भी लोक कल्याण एवं सामाजिक सु ढ़ता की राह प्रशस्त करने में सफल हुई व्यक्ति की प्रतिष्ठाः व्यक्ति समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है ।
गुरु जांभोजी के समय व्यक्ति अपने पौरुष से हताश था । उनके आध्यात्मिक चिंतन का अस्तित्व खतरे में था । एक सच्चे पथ - प्रदर्शक एवं सच्चे गुरु की उस युग में महती आवश्यकता थी । विभिन्न प्रकार के पाखंड , भूत , प्रेत , भूमियों का बोलबाला था । तब गुरु जांभोजी ने व्यक्ति की बाह्य एवं आंतरिक पवित्रता के साथ विष्णु की सर्वव्यापकता को प्रदर्शित किया । व्यक्ति कारण को किसी प्रकार का नशा , चोरी , झूठ , निंदा आदि न करते हुए सात्विक भोजन तथा जीव हत्या नहीं करने का चिंतन प्रदान किया । व्यक्ति को सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान की । 
गुरु जांभोजी के इस चिंतन ने व्यक्ति को जो आत्मबोध कराया वह सामाजिक जीवन का मूल आधार बना और आज भी है । यज्ञ की प्रतिष्ठाः वैदिक युग से ही अग्नि की पूजा की जाती थी । यज्ञ सनातन धर्म परंपरा में अति प्राचीनकाल से ही प्रचलित था । यज्ञ समाज के धार्मिक , सामाजिक और राजनीतिक जीवन का केंद्र बिंदु था , लेकिन भगवान महावीर ने समाज के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने वाला बताते हुए यज्ञ का विरोध किया । इस्लाम के आगमन के साथ ही यज्ञमूलक संस्कृति समाज में काफी क्षीण हो चुकी थी । ऐसे युग में गुरु जांभोजी ने समाज को यज्ञ करना न केवल धार्मिक अपितु पर्यावरण सरंक्षण एवं मानव के उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक बताते हुए प्रतिदिन प्रत्येक घर में हवन करने का चिंतन प्रदान किया । गौ घृत से किया जाने वाला यज्ञ वर्तमान में वायु प्रदूषण को रोकने में सर्वाधिक प्रभावी है । गुरु जांभोजी के इस यज्ञ मूलक चिंतन की समाज में व्यापक प्रतिष्ठा हुई और प्रत्येक घर में प्रतिदिन हवन करना लोगों के जीवन का अनिवार्य अंग बन गया । विचारमूलक आचारः समाज व्यवस्था के लिए गुरु जांभोजी ने अपने चिन्तन के अंतर्गत विचारमूलक आचार को भी प्रधानता दी । लोगों को दिए जाने वाले उनके उपदेश आज लोक में पंचम वेद के नाम से भी जाने जाते हैं । उनके संबंध सामूहिक रूप से सबदवाणी या जंभवाणी के नाम से भी प्रसिद्ध एवं प्रचलित हैं । इसमें गुरु जांभोजी के विश्वव्यापी लोक कल्याणकारी चिंतन का समावेश शब्दों के रूप में संरक्षित एवं सुरक्षित है ।


गुरु जांभोजी का आचार र - विचारमूलक था । यह सभी के लिए था , इसमें किसी प्रकार का वर्ग भेद नहीं था । उनकी वाणी सभी के लिए आचार संहिता हैं । राजनीतिक जीवनः गुरु जांभोजी का युग राजनीतिक दृष्टि से भी सर्वाधिक विषमताओं और मतभेद का युग था । राष्ट्र के अलग - अलग हिस्सों में राजा - महाराजाओं के मध्य परस्पर राज्य प्राप्ति या राज्य पर अधिकार करने के लिए युद्ध हो रहे थे । युगीन शासक सिकंदर लोदी के अलावा राव जोधा , राणा सांगा , राव मालदेव , रावल जेसिंह , लूणकरण जैसे प्रतापी शासक भी गुरु जांभोजी के चिंतन से प्रभावित हुए । राव दूदा और राणा सांगा के जीवन पर तो गुरु जांभोजी के चिंतन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा । 

गुरु जांभोजी का जन्म भी पीपासर के ग्रामपति ठाकुर रोलोजी पंवार के कुल में हुआ , जो विक्रमादित्य की बैयालीसवीं पीढ़ी के वंशज बताए जाते हैं । राजनीतिक इतिहास , प्रशासन एवं उनके प्रति जो गुरु जांभोजी का वैचारिक दृष्टिकोण उनका वैश्विक चिंतन आवश्यक है । गुरु जांभोजी ने जो उपदेश दिए एवं उनकी वाणी में जो सबद संकलित है , वे मानव समुदाय को आशा , उत्साह और पौरुष से उद्दीप्त करने वाले हैं । उनके अनुसार संसार में सभी को जीवन जीने का अधिकार है , चाहे वह मनुष्य हो , पेड़ पौधा हो , व्यक्ति हो या पशु - पक्षी हो । गुरु जांभोजी के उपदेश किसी एक देश के लिए नहीं , जाति के लिए नही , एक वर्ग विशेष के लिए नहीं , एक काल के लिए नहीं अपितु यह पीयूषवर्षी अमृतवाणी पंचम वेद है । इसका संदेश सनातन है , सार्वभौम है और सार्वकालिक है । किसी भी प्रकार के जीव आदि की हिंसा करना मानव जाति के लिए महाविनाश और सर्व विनाश है । यह मानव के संयमहीन , पाशविक प्रवृत्ति का प्रतीक है । जांभाणी दर्शन जीवों की रक्षा , प्रगति और उनके संवर्धन का प्रतीक है । आज मनुष्य जाति अनेक दलों , राष्ट्रों , विभिन्न राजनीतिक शिविरों एवं वर्ग समूह में बंटी हुई है । परस्पर घृणा , वैमनस्य और विरोध का ज्वर उठ रहा है । कोई भी किसी के दृष्टिकोण को | समझने , समझाने के लिए तैयार नहीं है । उस समय केवल गुरु जांभोजी की वाणी की एक पंक्ति- ' जो कोई आवे हो हो करतो आपहु होइये पाणी ' और ' वाद - विवाद फिटा कर प्राणी'- यह एक ऐसा उपाय है , जो विश्व मैत्री , मानव एकता एवं परस्पर सहानुभूति जगा सकती हैं । परस्पर वैमनस्यता एवं दुराग्रह से मनुष्य जाति को मुक्त करा सकती हैं । यदि आज मनुष्य मनुष्य से प्रेम करना चाहता है और मानव की रक्षा चाहता उसे गुरु जांभोजी के सिद्धांतों को अपनाना पड़ेगा । 

उनके दर्शन में मानव जीवन की श्रेष्ठता , आंतरिक एवं बाह्य पवित्रता और परमात्मा की सर्वव्यापकता निहित हैं । गुरुजी की वाणी शांत , धीर , गंभीर , प्रगतिशील , नवीन दृष्टिकोण की आवाज से आलोकित है । व्यक्ति , समाज , राष्ट्र सभी को जंभवाणी मानव की समस्त समस्याओं का समाधान बताती हैं । विश्व मंगलम , विश्व शांति के लिए गुरु जांभोजी की अमृतवाणी को जन - जन तक पहुंचाया जाना आवश्यक है । आज की इस हिंसा , घृणा , क्रोध , करुणा और अशांति से त्रस्त दुनिया में गुरु जांभोजी का शुद्ध , शांत , निर्विकार , विश्वमैत्री , संयम , त्याग , तपस्या , त्याग , शील का संदेश महत्वपूर्ण एवं प्रभावी है । ' जीव दया पालना और हिंसा न करना ' गुरु जांभोजी का यह अहिंसा विषयक सहिष्णुतावादी सिद्धांत है । इनमें यथार्थवादी साहित्य के चिंतन की एक विशिष्ट चिंतन पद्धति है । जिसके अनुसार पंथ के साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में जीवन के यथार्थ रूप का अंकन किया है । इस पंथ के संतकवियों का दृष्टिकोण आदर्श इसलिए है कि उन्होंने धर्म के आंतरिक पक्ष पर जोर दिया है । आंतरिक पक्ष के | अंतर्गत वे मानव के मानवीय सुख , आध्यात्मिक सुख या ऐसे कहे तो एक प्रकार से आदर्श जीवन जीने की कला निहित है ।

इनके साहित्य में गुरु जांभोजी की वाणी का शाश्वत स्वरूप , विष्णु की चिरंतन सत्यता और आदर्श जीवन जीने की विधि संनिहित हैं । इस पंथ का जो कथा साहित्य है वह बिश्नोई पंत की अभिवृद्धि एवं नूतनता का द्योतक है । इनमें विश्नोई धर्म , दर्शन एवं समाज की गुरु जांभोजी के प्रति प्रगाढ़ आस्था समाहित । इस प्रकार गुरु जांभोजी का इन संदर्भ में अध्ययन करने पर गुरु जांभोजी एक महान् समाज शास्त्री के रूप में भी हमारे सामने आते हैं और उनका चिंतन एक ऐसा समाजशास्त्रीय दर्शन प्रस्तुत करता है , जो देश और काल की सीमाओं से परे हैं । संपूर्ण विश्व के मानव मात्र के लिए प्रभावी एवं महत्वपूर्ण है ।

अब गुरु जांभोजी के चिंतन का अध्ययन इस दृष्टि से भी किया जाना आवश्यक है कि विश्व के दार्शनिक चिंतकों के साथ - साथ गुरु जांभोजी के चिंतन का अध्ययन विश्व कल्याण के लिए कितना प्रभावी है तथा दर्शन के क्षेत्र में क्या नवाचार स्थापित कर सकता है । दर्शन विचारकों के साथ - साथ गुरु जांभोजी के चिंतन का वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी समझना आवश्यक है । इस संबंध में गुरु जांभोजी के 550 से अधिक वर्षों से प्राप्त साहित्य में जो वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध होते हैं , उनका अध्ययन किए जाने तथा उनके द्वारा प्रतिपादित 29 धर्म - नियम एवं उनके विचारों की सैद्धांतिक मान्यताओं के प्रायोगिक अध्ययन की आवश्यकता है ।

इस विषय हेतु कला एवं समाज विज्ञान विषय के साथ - साथ मानविकी एवं विज्ञान विषय के निष्णांत और निष्ठावान अध्येता तथा सिद्धांत के सच्चे ज्ञाता जब इस विषय में सम्मिलित होकर एक नई दिशा प्रदान करेंगे , तभी इस प्रकार का अध्ययन संभव है । -

सोजन्य: अमर ज्योति पत्रिका
मूल लेखक:
डॉ . रामस्वरूप ग्राम पोस्ट जैसला , तह . - बाप , जिला - जोधपुर राजस्थान मो . : 9782005752

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