बिश्नोई: बिश्नोई जाति का इतिहास | History of Bishnoi Caste

बिश्नोई समाज का इतिहास (History Of Bishnoi Caste / Vishnoi Caste / Vishnoi Panth / Bishnoi Community):

जब भारत में चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दियों में धर्म का पतन हो रहा था, लोग जीवन का सही तरीका भूल गए थे। विदेशी आक्रमणों और उनके शासन के कारण भारत की मौलिक संस्कृति नष्ट हो गई थी। धार्मिक पाखंड एवं अधविश्वास अपनी चरम सीमा पर थे। हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही धर्मों के अनुयायी धर्म के मूल को भूल चुके थे तथा धर्म के नाम पर आपस में लड़ते थे।

उस समय मारवाड की जनता अनेक प्रकार के संकटों से गुजर रही थी। आपसी धार्मिक वैर-भाव, विदेशी एवं स्थानीय हमले तथा मरुस्थल में पड़ने वाले अकाल, अनावृष्टि, भूख-प्यास ने मरूस्थल की जनता के जीठन को और अधिक दुखदायी बना दिया था। लोगों का जीवन अस्त व्यस्त हो गया था। पशु-पक्षी और मनुष्य दोनों का जीवन संकट में पड़ गया था।

पाखडी पण्डे आदि यहां की भोली-भाली जनता का आर्थिक मानसिक व दैहिक शोषण भी करते थे। इस काल में भारत वर्ष में कई महापुरूष व संतो का जन्म हुआ। इसलिए इस समय को भक्ति काल भी कहा जाता है। ठीक इसी काल में गुरू जंभेश्वर जिन्हे गुरू जांभोजी के नाम से भी जाना जाता है,का 28 अगस्त सन् 1451 को नागौर रियासत के पीपासर गाव में क्षत्रिय लोहटजी पंवार तथा माता हंसा के पुत्र के रूप में प्रादुर्भाव हुआ।

गुरू जंभेश्वर ने अनेक सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों को त्यागने का आह्वान किया। उन्होंने बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, भूत-भोमिया, क्षेत्रपाल की पूजा, नर बलि, पशु बलि, पिंड दान, तीर्थ यात्रा आदि को अस्वीकार करते हुए केवल एक परमात्मा (विष्णु) का जप करने पर बल दिया। उन्होंने कर्मवाद, आचरण की शुद्धता, नैतिक गुणों और गृहस्थ जीवन को महत्व दिया। उन्होंने कहा कि विश्नोई पंथ पोथी-शास्त्रों का धर्म नहीं है, अपितु कर्मवाद, विचारवाद और सदाचरण का धर्म है।उन्होंने पुराने समय से चली आ रही इस मान्यता को भी चुनौती दी कि गृह त्याग और कठिन साधना के बिना मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने सन्यास जीवन के स्थान पर गृहस्थ जीवन को सर्वोत्तम बताया। उन्होंने सैकड़ों भगवाधारी साधुओं को सन्यास जीवन से पुनः गृहस्थ बनाया था। उन्होंने हठयोग साधना के स्थान पर सहज योग साधना पर बल दिया। उन्होंने प्रकृति प्रेम, जीव-जंतु और हरे वृक्षों की रक्षा, पर्यावरण शुद्धि और शाकाहार का उपदेश दिया।

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बिश्नोई पंथ की स्थापना (Establishment of Bishnoi religion):

श्री जंभेश्वर अपने माता-पिता के जीवित रहने तक उनकी सेवा में लीन रहे, उनके स्वर्ग सिधारने के बाद अपनी समस्त संपती का त्यागकर राजस्थान के बीकनेर जिले में स्थित समराथल धोरे पर आसान्न स्थापित किया तथा लोक कल्याण हेतु उनकी सेवा में जुट गये। उन्होंने सबसे पहले अकाल से त्रस्त मारवाड़ से मालवा (मध्यप्रदेश) की तरफ पलायन कर रहे लोगों को रोका तथा उन लोगों की अन्न, जल व धन से भरपूर सहायता की। जो लोग समराथल पर सहायता हेतु उनके पास आते, श्री जंभेश्वर अपने अखुठ (अकूत) भण्डार से लोगों को अन्न-धन देते। जितने भी लोग उनके पास आते, वे सब अपनी जरूरत के अनुसार अन्न-जल ले जाते। इसके साथ ही भूली-भटकी मानवता को अपने उपदेशों के माध्यम से सही दिशा प्रदान की। गुरू महाराज ने समाज में अनेकों धार्मिक पाखण्डों एवं कर्मकाण्डों का प्रबलता से विरोध किया।

गुरू जंभेश्वर ने संवंत 1542 सन् 1485 में कार्तिक वदी अष्टमी को समराथल धोरा, बीकानेर पर विराट यज्ञ हवन का आयोजन कर, पाहल बनाकर व कलश स्थापना कर धर्म की स्थापना की जिसे ’बिश्नोई धर्म’ नाम दिया गया।

सबसे पहले गुरू जंभेश्वर भगवान ने अपने चाचा पुल्होजी को पाहल पिलाकर 'बिश्नोई धर्म' में शामिल किया। उन्होनें इस धर्म को अपनाने वाले लोगों के लिए 29 नियम धर्म प्रणित किए। 29 नियमों का पालन 'धर्म का मार्ग' प्रशस्त करता है। इन नियमों का पालन करके मनुष्य सरलता से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। एक दिन पुल्होजी ने 29 नियमों पर संदेह व्यक्त करते हुए स्वर्ग-नरक की सत्यता जानना चाहा, भगवान जम्भेश्वर ने पुल्होजी को अपनी दिव्य दृष्टि से स्वर्ग-नरक दिखाकर उनका विश्वास प्राप्त किया।

History Of Bishnoi Caste / Vishnoi Caste
बिश्नोई जाति का इतिहास

उस विराट यज्ञ हवन में सभी जाति व वर्ग के असंख्य लोग शामिल हुए। ज्यादातर जाट व राजपुत थे। उस समय लोगों ने गुरू जंभेश्वर द्वारा स्थापित इस नवीन धर्म के प्रति विशेष उत्साह दिखाया। लोगों के समुह के समुह आकर पाहल ग्रहण करके बिश्नोई धर्म में शामिल होने लगे थे।

हजुरी कवि समसद्दीन ने साखी में बिश्नोई धर्म में दीक्षित होने के लिए आने वाले लोगों का वर्णन इस प्रकार किया हैं-

हंसातो हंदीवीरां टोली रे आवै, सरवर करण सनेहा।

जारी तो पाहलि वीरा पातिक रे नासे, लहियो मोमण एहा।

एक अन्य कवि ने साखी में कहा हैं कि-

कलिकाल वेद अर्थवण, सहज पंथ चलावियो।

संभराथल जोत जागी, जग विणण आवियो।

विश्नोई धर्म में दीक्षित होने का सिल-सिला अष्टमी से लेकर कार्तिक अमावस्या (दिपावली) तक निरन्तर लगा रहा। 

साहबराव जी ने जंभसार के आठवें प्रकरण में लिखा हैं कि-

आदि अष्टमी अंत अमावस च्यार वरण को किया तपावस।

दीपावली कै प्रातः ही काला बारहि कोड़ कटे जमजाला।।

इस प्रकार सभी वर्णों के लोगों द्वारा ’पाहल’ लेकर बिश्नोई बनने की प्रक्रिया शुरू हुई और विश्नोई धर्म का प्रवर्तन हुआ। गुरू जंभेश्वर ने 51 वर्षों तक भारत के लगभग सभी प्रदेशों का भ्रमण किया, उनका भ्रमण व्यापक था। भारत के बाहर श्रीलंका, काबुल, कंधार, ईरान व मक्का तक जाने की बात भी कही जाती हैं। शब्दवाणी के शब्द 63 शुक्ल हंस में कई स्थानों पर जाने का वर्णन किया हैं। उनकी वाणी व उनके महान व्यक्तित्व का प्रभाव सभी लोगों पर पड़ा, जिनमें राजवर्ग, साधु-संत और गृहस्थी थे।

बिश्नोई शब्द की उत्पति (Origin of the word Bishnoi):

बिश्नोई शब्द (Bishnoi): बिश्नोई शब्द की उत्पति ’बिस’ और ’नोई’ से हुई है। स्थानीय भाषा में ’बिस’ का अर्थ ’20’ और ’नोई’ का अर्थ ’9’ होता है। दोनों का योग करने पर योग 29 होता है। गुरू जंभेश्वर ने अपने अनुयायियों को 29  नियमों की आचार संहिता प्रदान की थी। इन नियमों का पालन करके मनुष्य सरलता से परमात्मा की प्राप्ति कर सकता हैं, जिसका समुदाय पालन करता हैं। इसी कारण इस समुदाय का नाम ’बिश्नोई’ पड़ा। 

स्थानीय बोली में एक कहावत प्रचलित है कि -

’उणतीस धर्म की आंखड़ी, ह्रदय धरियो जोय जाम्भोजी कृपा करी, नाम बिश्नोई होय’

जो लोग जंभेश्वर के 29 नियमों का ह्रदय से पालन करते हैं वे लोग ही बिश्नोई हुए हैं।

विश्नोई शब्द (Vishnoi): मान्यता है कि गुरू जंभेश्वर भगवान विष्णु के अवतार थे, गुरू जंभेश्वर ने शब्द 67 में कहा है कि ’’विष्णु-विष्णु भण रे प्राणी’’ अर्थात उन्होने परमात्मा के प्रति भक्ति पर जोर दिया। इस कारण इस धर्म के लोग विसन विष्णु के अनुयायी होने के कारण ’विष्णोई’ कहलाए। शब्द कालांतर में परिवर्तित होकर पहले ’विश्नोई’ और बाद में ’बिश्नोई’ हो गया। वर्तमान में कुछ लोग विश्नोई शब्द का प्रयोग करते हैं, जबकि अधिकांश स्वयं को बिश्नोई कहते हैं।

बिश्नोई समाज के 29 नियम (29 Rules of Bishnoi Caste): 

गुरू जंभेश्वर एक दृष्टिकोणीय संत और दार्शनिक थे, जिन्होने प्रकृति के साथ सामंजस्य और अहिंसा का उपदेश दिया। उन्होनें अनुयायियों को 29 नियम दिये, जो बिश्नोई धर्म का आधार है। ये 29 नियम पर्यावरण संरक्षण, पशु कल्याण, सामाजिक सद्भाव और व्यक्तिगत स्वच्छता को बढ़ावा देते है। बिश्नोई समाज पेड़ो और वन्यजीवों के लिए प्रसिद्व हैं। इस पेज पर बिश्नोई समाज के 29 नियम दिए हुए हैं उन्हें पढ़कर आप आध्यात्मिक लाभ ले सकते हैं। अंग्रजी में पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें।

जंभवाणी या शब्दवाणी (Jambhvani / Shabdwani): 

गुरू जंभेश्वर की शब्दवाणी अति विलक्षण ग्रंथ है। यह वाणी अपनी विलक्षणता, ज्ञान और भक्ति के मिश्रण के लिए प्रसिद्ध है। यह कविता, गद्य और गान का अद्भुत मिश्रण है, जिसे गाया, पढ़ा और सस्वर भी सुनाया जा सकता है। शब्दवाणी शैली की दृष्टि से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद की तरह है। इसमें गीता की तरह ज्ञान, कर्म और भक्ति (सिद्धांत, साधना और व्यवहार) का मिश्रण है। गुरु जाम्भोजी ने कर्म पर विशेष बल दिया है। वे कहते हैं, “खेत मुकति ले किसना अरथै, जै कंध हरै तो हरियाँ।“ गुरु जाम्भोजी ने कहा है, “सतगुरु मिलियौ, सतपंथ बतायो, वेदगरथ उदगारुं।“ इससे स्पष्ट है कि उनकी वाणी में चारों वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् के दृष्टांत मिलते हैं। इस शब्दवाणी में अनेक भाषाओं के शब्द समाहित हैं। यह गुरु जाम्भोजी की शैली में है। यह किसी की नकल नहीं है।

गुरू जंभेश्वर का समय सन् 1451 से सन् 1536 तक का है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक शब्द बोले होंगे लेकिन ज्यादातर कालकवलित हो गये होंगे। हमारे पास अब केवल 120-125 शब्द बचे है। 250 वर्ष तक उनके उपदेशों (शब्द) को लोगों ने कंठस्थ बोलकर बचाये रखा इसके बाद सन् 1739 में पहली हस्तलिखित प्रति परमानन्द जी बणियाल ने लिपिबद्ध की। उसके 60-70 वर्ष बाद कई और लिपिकारों ने भी शब्दवाणी को लिपिबद्ध किया और पुस्तक प्रकाशन तो काफी बाद में सन् 1892 में पहली पुस्तक छपी। अब गुरू जंभेश्वर जी की शब्दवाणी तो सारी एक जैसी है परन्तु विभिन्न लोगों के उच्चारण और लिखित में मामूली अन्तर आना स्वाभाविक है।

विश्नोई समाज के संस्कार (Rituals of the Vishnoi Panth):

विश्नोई समाज एक प्रगतिशील और पर्यावरण प्रेमी समाज है, जो अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है। विश्नोई समाज अपने संस्कारों और परंपराओं के माध्यम से समाज में प्रेम, करुणा, सद्भाव, और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।

बिश्नोई समाज में केवल तीन ही संस्कार मान्य हैं। जन्म संस्कार, विवाह संस्कार और मृत्यु संस्कार। तीनों संस्कार विश्नोई धर्म की स्थापना के लगभग 100 वर्षो तक थापनों के द्वारा संपन्न करवाये जाते थे। वर्तमान में ये संस्कार गायणाचार्यो द्वारा संपन्न करवाये जाते हैं।

  • जन्म संस्कारः बिश्नोई धर्म में, जन्म लेने मात्र से कोई बालक या बालिका बिश्नोई नहीं बन जाता। उन्हें पाहल संस्कार के माध्यम से बिश्नोई धर्म में दीक्षित किया जाता है। यह संस्कार जन्म के 30 दिन बाद मनाया जाता है। जन्म के दिन से 30 दिनों तक, मां और बच्चे को स्वच्छ और पवित्र स्थान पर अन्य लोगों से अलग रखा जाता है। इस दौरान, उनके खानपान और वस्त्रों की विशेष देखभाल की जाती है। इस दौरान, मां को पौष्टिक भोजन दिया जाता है और शिशु को केवल मां का दूध ही पिलाया जाता है। बच्चे और मां के वस्त्रों की भी विशेष रूप से सफाई रखी जाती है। 30 दिनों तक, मां को सभी प्रकार के कार्यों से मुक्त रखा जाता है और उसे पूर्ण विश्राम दिया जाता है। 30 दिन पूरे होने पर, सूर्योदय के समय, जच्चा और शिशु दोनों को स्नान कराया जाता है। इसके बाद, गायणाचार्य द्वारा पाहल संस्कार संपन्न किया जाता है। इसे चल्लु देना भी कहा जाता है। इस संस्कार के माध्यम से सूतक समाप्त होता है और शिशु बिश्नोई धर्म में दीक्षित हो जाता है।  शिशु का नाम घर के सदस्यों द्वारा ही रखा जाता है। बिश्नोई समाज में, जन्म पत्रिका बनाने का रिवाज नहीं है।
  • विवाह संस्कारः विवाह का समय वर और वधु दोनों पक्षों की सुविधानुसार घर के सदस्यों द्वारा स्वयं निर्धारित किया जाता है। जन्म पत्रिका, मुहूर्त आदि को देखकर विवाह का समय निर्धारित करने की प्रथा नहीं है। जब लड़के की आयु 21 वर्ष तथा लड़की की आयु 18 वर्ष हो जाए तो समाज में उनके विवाह का प्रावधान है।विवाह की तिथि तय होने पर डोरे करने की रस्म होती है। सूत के धागे को हल्दी में रंग कर विवाह में जितने दिन शेष होते हैं उतनी गांठें लगाई जाती हैं। प्रतिदिन एक गांठ खोली जाती है और विवाह वाले दिन आखिरी गांठ खोले जाने पर बाराती वाले बारात लेकर आते हैं। बारात का स्वागत तोरण द्वार पर होता है। दूल्हा-दुल्हन को उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके 'बाजोट' (पिढा) पर बैठाया जाता है। दूल्हे के दुपट्टे को दुल्हन की चुनरी के छोर से बांधा जाता है, जिसे 'गंठजोड़ा' कहते हैं। दूल्हे के दुपट्टे को दुल्हन की चुनरी के छोर से बांधा जाता है, जिसे 'गंठजोड़ा' कहते हैं। दुल्हन दूल्हे के बाएं तरफ बैठी होती है। दूल्हे की दाहिनी हथेली और दुल्हन की बाईं हथेली में मेहंदी की पिंडी रखी जाती है, जिसे 'हथलेवा' बोलते हैं। संस्कारकर्ता विवाह मंत्रोच्चार करते हैं। इस दौरान दूल्हे-दुल्हन की पीढ़ी बदली जाती है और 'गंठजोड़ा' खोल दिया जाता है। विवाह संस्कार संपन्न होने पर वधु को पाहुल दिया जाता है और सभी उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
  • अन्तिम संस्कार (मिट्टी देना संस्कार):

पर्यावरण संरक्षण में बिश्नोई जाति का योगदान (Contribution of Bishnoi caste in environmental protection):

विश्व में बिश्नोई समाज को पर्यावरण संरक्षक के रूप में जाना जाता है। हरे पेड़ों और वन्य जीवों की रक्षा के लिए, बिश्नोई समाज के लोगों ने अपनी स्थापना से लेकर आज तक अनेक बलिदान दिए हैं। यह भावना गुरु जांभोजी की पर्यावरणीय शिक्षा और उनके द्वारा स्थापित 29 सिद्धांतों से प्रेरित है।

खेजड़ली आंदोलन (Khejarali Movement):

बिश्नोई पेड़ों और वन्य जीवों को विनाश से बचाने के लिए अपने साहस और बलिदान के लिए जाने जाते हैं। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हैं 1730 का खेजड़ली आंदोलन, जिसे ’बिश्नोई आंदोलन’ या ’चिपको आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता हैं। जिसमें मारवाड़ के महाराज के सैनिकों ने खेजड़ली गांव में खेजड़ी के पेड़ों को अपने महल के लिए काटने की कोशिश की। बिश्नोई अमृता देवी बेनीवाल के नेतृत्व में 84 गांवों के 365 लोगों ने पेड़ों को गले लगाकर उन्हें बचाने के लिए अपनी जान दे दी। बिश्नोई अन्य पर्यावरण आंदोलन व वन्य जीवों के रक्षार्थ आंदोलन में भी शामिल हुए हैं। शिकार और वन्य प्राणियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ भी हमेशा विरोध दर्ज करवाते आए हैं जैसे काला हिरण शिकार हो चिंकारा हो जो विष्णु समाज के लिए पवित्र हैं।

पूर्व लिखित खेजड़ली बलिदान एक सच्ची कथा, अमृता देवी बिश्नोई का बलिदान- बिश्नोई आंदोलन एवं खेजड़ली आंदोलन में बलिदान देने वाले 363 शहीदों की सूची पूर्व लेखों का अध्ययन कर आप आध्यात्मिक आन्नद प्राप्त कर सकते है।

करमा और गौरा का बलिदान ( Karma and Gaura Ka Balidan):

जोधपुर रियासत के रैवासड़ी-रामासड़ी गांव की दो बहनें थीं। 1730 में, जब गांव के ठाकुर ने वृक्षों की कटाई का आदेश दिया, तो इन दोनों बहनों ने गुरु जंभेश्वर के '29 नियमों' का पालन करते हुए पेड़ों की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया।

वील्होजी, जो इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे, ने अपनी साखी "करमणी चलणो इण संसार" में इस घटना का भावपूर्ण वर्णन किया है।

खिवणी खोखर, मोटा भक्त और नेतु नैण का बलिदान:

जोधपुर के तिलवासनी गांव के तीन वीर, जिन्होंने खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान गंवा दी।

बूचोजी का बलिदान:

मेंड़ता के पोलागांव के रहने वाले, जिन्होंने पेड़ों की कटाई रोकने के लिए अपना बलिदान दिया। कवि केशोजी इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा थे केशोजी ने साखी  "बूचो बारां करोड़" में उक्त घटना का सविस्तार वर्णन किया है।

रामूजी खोड़ का बलिदान:

यह बलिदान संवत 1700 में चैत्र सुदी एकादशी मघा नक्षत्र वार मंगलवार के दिन जोधपुर से लगभग 40 किलोमीटर दुर कापरहेड़ा गांव में मेले के दौरान हुआ। राजा की आज्ञा के बीना ही राज कर्मचारीयों द्वारा मन-माना प्रवेश कर वसुलने को लेकर बिश्नोई समाज ने विरोध किया। उस समय धवा गांव के रामुजी खोड़ दुल्हा बने हुए बारात सहित विवाह के लिए जा रहे थे। उन्होनें देखा की विश्नोईयों भाइयों के साथ राज कर्मचारी ज्यादती कर रहे है। इस अन्याय के खिलाफ रामूजी खोड़ ने अपने प्राणों की आहुती दे दी।

तरोजी राहड़ द्वारा जीव रक्षा:

हरियाणा के शीशवाल गांव के एक किसान, जिन्होंने हिरणों का शिकार करने वाले एक अंग्रेज अधिकारी का विरोध किया और जेल में भूख हड़ताल कर शिकार पर रोक लगवाई।

चिमनाराम और प्रतापराम का बलिदान:

12 अप्रेल सन 1947 में गुड़ा मालानी गांव के चिमनाराम पुत्र गोरखाराम और प्रतापराम ने हरिणों की रक्षा करते हुऐ शिकारियों द्वारा गोली के शिकार हो गये। शिकारी की गोली हरिण के नहीं लगने दी। वह गोली हंसते हुए अपनी छाती पर झेल ली। धन्य है वह वीर विश्नोई जिन्होंने गुरू महाराज के नियमों का पालन किया और दूसरों के लिये प्रेरणा के स्रोत बनें।

अर्जुनराम का बलिदान:

गुरू महाराज के नियमों का पालन करते हुए अर्जुनराम गांव भक्तासनी ने भी 3 फरवरी 1948 में उसी प्रकार तन मन धन सभी कुछ समर्पण किया।

चूनाराम का बलिदान:

श्री चूनाराम पुत्र श्री हरदान रोहिचा कलां ने भी अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुऐ सांसारिक मोह माया को तिनके की भांति तोड़ कर सदा के लिए जन्म मरण के दुख से छूटने का मार्ग अपनाया और शहीद हो गये।

भीयाराम का बलिदान:

भीयाराम पुत्र श्री मालाराम गांव बनाड़ में 17 मई 1963 में अपना सर्वस्व हरिणों के लिए व वन्य जीवों के लिये समर्पण किया। हम जीयेंगे तो सभी हमारे साथी वन्यजीवों तथा मानवों, वृक्षों को साथ लेकर ही अन्यथा दूसरों को मार कर या मरते हुऐ देख कर एक क्षण भी जीवित रहना अच्छा नहीं है। ऐसी भावना से स्वेच्छा से अपना प्राण शिकारियों के सामने प्रस्तुत कर दिया। उन दुष्टों ने हरिण के बदले भीयाराम को लक्ष्य बनाया। इन्हीं सभी महानुभावों को मरणोपरांत राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण जन सहयोग सम्मेलन जोधपुर ने 15 जनवरी 1987 में सम्मानित किया था।

बीरबल का बलिदान:

लोहावट गांव के बिड़दाराम खीचड़ के सुपुत्र बीरबल ने भी अपने प्राणों की आहुति वन्यजीव रक्षार्थ दी थी। 17 दिसम्बर 1977 में प्रातः कालीन वेला घर में आये हुऐ मेहमानों की सेवा से शुद्ध हुई आत्मा ने, परमात्मा ने मिलन किया था। बीरबल को किसी ने जबरदस्ती नहीं भेजा था वह तो हरिण को छटपटाते हुए देख कर सहसा दौड़ पड़े थे और जीव रक्षार्थ अपना बलिदान दे दिया था। गुरू महाराज के वचन हृदय में धारण कर रखे थे, 'साहिल्यां हुआ मरण भय भागा"

इस प्रकार सभी जाति, वर्ण व धर्म के लोगों द्वारा पाहल लेकर बिश्नोई धर्म में दीक्षित होने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, जो आज सहज धर्म, पर्यावरण प्रेमी के रूप में वट वृक्ष की भांति दुनिया भर में फैल चुका हैं।

बिश्नोई जाति की जनसंख्या (Bishnoi caste population):

राजस्थान की बीकानेर रियासत बिश्नोई जाति का उद्गम स्थल है। गुरु जांभोजी, जिन्होंने 15 वीं शताब्दी में बिश्नोई धर्म की स्थापना की, का भ्रमण काल काफी जगहों पर था। उनके प्रभाव से, कई लोग बिश्नोई अनुयायी बन गए, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, सिंध, मुलतान, अफगानिस्तान के काबुल और कंधार तक शामिल थे। हालांकि, बाद में प्रचार के अभाव में, इन क्षेत्रों में कई अनुयायियों ने बिश्नोई धर्म छोड़ दिया। इसके बाद, राजपुताना के बीकानेर, बाड़मेर और जोधपुर से बिश्नोई रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश चले गए।

आज बिश्नोई जाति भारत के विभिन्न राज्यों में फैली हुई है और अपनी अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है। समाज के वरिष्ठजनों के अनुसार, भारत में बिश्नोई समुदाय की आबादी लगभग 13 लाख है। राजस्थान बिश्नोई जाति का गढ़ माना जाता है, जहां उनकी आबादी लगभग 9 लाख है। राजस्थान के नागौर, जोधपुर, सांचौर, जालोर, बाड़मेर, चूरू, हनुमानगढ़ और बीकानेर जिले बिश्नोई समुदाय के लिए सबसे महत्वपूर्ण केंद्र हैं। हरियाणा में बिश्नोई समुदाय की आबादी लगभग 2 लाख है। पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात सहित देश-विदेश में भी बिश्नोई समुदाय के लोग रहते हैं।

आज, बिश्नोई समुदाय विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक योगदान दे रहा है। वे शिक्षा, राजनीति, खेल और व्यवसाय में महत्वपूर्ण पदों पर हैं।

बिश्नोई जाति वर्ग (Bishnoi Caste Category):

बिश्नोई जाति राजस्थान में ओबीसी श्रेणी में हैं, जबकि केंद्र सरकार और अन्य राज्यों में वे सामान्य श्रेणी में आते हैं। राजस्थान में बिश्नोई जाति को 1 जनवरी 2000 से राज्य सरकार द्वारा ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) का दर्जा दिया गया है। हालांकि, केंद्र सरकार की ओबीसी सूची में बिश्नोई जाति अभी शामिल नहीं है। राजस्थान सरकार ने 2023 में केंद्र सरकार को बिश्नोई जाति को ओबीसी सूची में शामिल करने के लिए सिफारिश भेजी थी।

हाल ही में, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी बिश्नोई समाज को ओबीसी में शामिल करने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेज दी है। यह निर्णय अभी केंद्र सरकार द्वारा लिया जाना बाकी है। यदि केंद्र सरकार इस सिफारिश को स्वीकार कर लेती है, तो बिश्नोई समुदाय (Bishnoi community) के लोग केंद्र सरकार द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण का लाभ उठा सकेंगे।

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